मकदुमपुर कोदरिया : अशिक्षा व गरीबी का दंश झेलता एक गांव

मंसुरपुर कोदरिया : अशिक्षा व गरीबी का दंश झेलता एक गांव

मड़वन से प्रीति कुमारी

अप्पन समाचार के लिए मड़वन प्रखंड से प्रीति कुमारी की रिपोर्ट. प्रीति ने बताया कि यह उसके जीवन की पहली रपट है. उसे अपने समाज की समस्याओं पर लिखना अच्छा लगता है. 

समस्याओं से जूझ रहे दलित, महादलित व अल्पसंख्यक टोले

मंसुरपुर कोदरिया : अशिक्षा व गरीबी का दंश झेलता एक गांव मड़वन। मुजफ्फरपुर जिले के मड़वन प्रखंडन्तर्गत मकदुमपुर कोदरिया पंचायत के मंसुरपुर चमरूआ गांव में लगभग 700 से अधिक दलित, महादलित और अल्पसंख्यक समुदाय के घर हैं। आजादी के 76 साल के बाद भी यहां के लोगों को आजादी ठीक तरह से नहीं मिल पायी है। उसकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति बदहाल है। बाल विवाह, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थय, लिंग भेदभाव जैसी समस्याएं आज भी यहां की प्रमुख समस्याएं बनी हुई हैं। लैंगिक भेदभाव यहां की सबसे बड़ी समस्या है।

लड़कियों एवं औरतों को सामाजिक स्तर पर मान-सम्मान नहीं दिया जाता है। अपने ही घर में बेटा-बेटी को बराबर का सम्मान व प्यार नहीं मिल पाता है। उन्हें बराबर की सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। उन्हें शिक्षा की रोशनी से भी दूर रखा जाता है। इसी कारण वे अपनी पढ़ाई मुश्किल से पांचवीं, छठी, सातवीं, ज्यादा से ज्यादा 10वीं तक जारी रख पाती हैं। वे जैसे ही 12-13 साल की होती हैं, घर के कामकाज में पूरी तरह लगा दी जाती हैं। उनका बाल विवाह कर दिया जाता है। मंसुरपुर कोदरिया : अशिक्षा व गरीबी का दंश झेलता एक गांव

मंसुरपुर कोदरिया : अशिक्षा व गरीबी का दंश झेलता एक गांव

बेटी कुछ गलत न कर बैठे, इसलिए पढ़ाई छुड़वा दी

कुछ लड़कियां इसलिए नहीं पढ़ पाती हैं, क्योंकि उनके घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं रहती है। पढ़ाई के खर्च के लिए पैसे कहां से आएंगे, यह सोच कर बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। कुछ लड़कियां इसलिए नहीं पढ़ पाती हैं, क्योंकि उनके परिवार के सदस्य को इस बात का डर रहता है कि उनकी लड़की के साथ कुछ अनहोनी न हो जाए। इस समाज की इसी सोच के कारण लड़कियों का विवाह कम उम्र में कर दिया जाता है। और आगे चलकर बालिका वधू के सामने अनेक प्रकार की समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

सामाजिक रीति-रिवाजों में बंधीं बेटियां बोल भी नहीं पातीं

लड़कियों को लेकर इस गांव-समाज में अपना अलग ही रिवाज है। हम लड़कियों को बिना सवाल उठाए ही उन रीति-रिवाज, परंपराओं, सामाजिक नियमों को मानने के लिए मजबूर होना पड़ता है। बिना यह पूछे कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं? ऐसा करने से क्या फायदा या नुकसान होगा, करते चले जा रहे हैं।
हमारे समाज में लड़कियों से अलग लड़कों के प्रति अलग ही सोच है। लड़कियों से ज्यादा लड़कों को इसलिए मान-सम्मान मिलता है कि वह 12-15 साल का होते ही कुछ कमा कर परिवार का भरण-पोषण करने लगता है। दलित-महादलित समाज के लड़के भी काॅलेज-यूनिवर्सिटी तक नहीं पहुंच पाते हैं।

स्कूली पढ़ाई के दौरान ही वे कमाने लगते हैं। बमुश्किल 10वीं-12वीं तक पढ़ पाते हैं। बहुत साले लड़के बीच में ही पढ़ाई छोड़कर दूर शहर में या फिर दूसरे राज्यों में कम मजदूरी में ही कमाने चले जाते हैं। इस गांव में तो कुछ घर ऐसे भी हैं, जिनमें एक भी सदस्य 10वीं पास नहीं हैं। इसका एक प्रमुख कारण है आर्थिक स्थिति का खराब होना एवं शिक्षा को लेकर जागरूकता का अभाव। इतनी बड़ी आबादी वाले इस गांव में केवल एक-दो लड़कियां ही ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी कर सकी है।

बेटी हो बेटी की तरह रहो, नीची आवाज में बोलो

यह समाज स्त्री-पुरुष समानता को उभारने की जगह उनके बीच के अंतर पर ज्यादा जोर देता है। लड़की पैदा हुई मतलब घर का कामकाज एवं घर के सदस्यों की सेवा करना उसके हिस्से की परंपरा बन गयी। लड़का होने का मतलब है, तेज दिमाग, ताकतवर, निडर आदि, लेकिन लड़की होने का अर्थ है- कमजोर, कोमल, भावुक आदि। ऐसी ही सोच से स्त्री-पुरुष के बीच फर्क बढ़ता रहता है। इस तरह उनके रास्ते अलग-अलग होते जाते हैं।

अभिभावक ये नहीं सोचते हैं कि जिसकी जैसी परवरिश होगी, वह वैसा ही बनेगी। यहां आज लड़कियों को कमजोर, अबला ही समझा जाता है। यदि कोई लड़की अपने हक के लिए थोड़ी ऊंची आवाज में किसी से बात कर ले, तो गांव के कुछ लोग नसीहत देते है कि तुम लड़की हो, नीची आवाज में बात करो। कुछ लोगों का कहना होता है कि तुम गांव की बेटी हो, तो बेटी की तरह ही रहो।

बचपन से ही बेटियों के कंधे पर लद जाता गृहस्थी का बोझ

गांव की जयलस देवी, कांति देवी, अनिता देवी आदि का कहना है कि हमें बचपन से ही घर के कामकाज को संभालने एवं मवेशियों को पालने की जिम्मेदारी दे दी जाती है और इसी कारण उन्हें पढ़ने का समय नहीं मिल पाता है। गांव की विमल देवी ने अपनी बेटी की शादी 7वीं कक्षा के बाद ही कर दी। वे बताती है कि बेटी कुछ ऊंच-नीच कर लेती, इससे पहले ही उसकी शादी कर दिए। और वह बेटी है, आगे पढ़कर वह करेगी भी क्या? अब तो ससुराल वाले का मन होगा तो पढ़ाएंगे, नहीं तो नहीं।

इस गांव की बालिकाओं की बात तो छोड़ दीजिए, यहां के 15 वर्षीय कुंदन कुमार, 17 वर्षीय दीपक कुमार, 12 वर्षीय धीरज कुमार व 14 वर्षीय पवन कुमार आदि स्कूल छोड़ चुके हैं। किताब-कॉपी से दूर हो चुके इन किशोरों का कहना है कि पढ़ कर क्या होगा? पैसा कमाएंगे, तो खाएंगे, क्योंकि बेरोजगार बैठे हैं।
इस गांव में आज भी शिक्षा की बहुत कमी है, जिसके कारण इतनी सारी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इस दलित-महादलित व अल्पसंख्यक बहुल गांव की अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी की समस्याएं इतनी गहरी है कि लोगों के जीवन-स्तर में सुधार नहीं हो पा रहा है। जबतक समाज के लोग शिक्षा पर खासा ध्यान नहीं देंगे, तबतक बदलाव संभव नहीं है। सरकार की योजनाएं उंट के मुंह में जीरा जैसी हैं।

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