सातवीं-आठवीं तक पढ़कर क्यों छोड़ दे रहीं बेटियां?

सातवीं-आठवीं तक पढ़कर क्यों छोड़ दे रहीं बेटियां?

बंदरा से विभा कुमारी

लेखिका विभा कुमारी मुजफ्फरपुर के बंदरा प्रखंड की रहनेवाली है। यह उनका पहला आर्टिकल है, जिसे अप्पन समाचार के लिए लिखा है।

सातवीं-आठवीं तक पढ़कर क्यों छोड़ दे रहीं बेटियां?बिहार सरकार बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं चला रही हैं। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के लिए प्रोत्साहन राशि, छात्रवृत्ति योजना, पोशाक योजना आदि की राशि डीबीटी प्रणाली के जरिए खाते में हस्तांतरित कर रही है। वहीं, आज भी बहुत से अभिभावक हैं जो अशिक्षा व जागरूकता की कमी की वजह से शिक्षा देने की बजाय बेटी का बाल विवाह करना अधिक उपयुक्त समझते हैं। सातवीं-आठवीं तक पढ़कर क्यों छोड़ दे रहीं बेटियां?

पढ़ कर क्या करोगी, चूल्हा में आंच ही तो लगाना है

ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियां सातवीं-आठवीं क्लास तक पढ़कर इसलिए पढ़ाई बीच में ही छोड़ देती हैं, क्योंकि गांव में ज्यादातर परिवार अशिक्षित व गरीब हैं। उन्हें शिक्षा के महत्व के बारे में जानकारी ही नहीं है। वे लोग शिक्षा को सिर्फ नौकरी से जोड़कर देखते हैं। यदि किसी पढ़ी-लिखी लड़की को नौकरी नहीं लगी, तो मां-बाप कहने लगते हैं कि देखो, फलां लड़की इतनी पढ़ी-लिखी है फिर भी चूल्हा-चौका ही कर रही है। उसे नौकरी कहां लगी? अक्सर गांव के लोगों के मुंह से ऐसा कहते सुना जाता है, लेकिन शायद उन्हें पता नहीं है कि शिक्षा का मतलब सिर्फ नौकरी मिल जाना नहीं है। शिक्षा से संस्कार आता है, समझदारी आती है, अच्छे-बुरे का फर्क समझ में आता है, आत्मविश्वास बढ़ता है और ठगे जाने का भय खत्म हो जाता है। जिस दिन गांव के आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर लोग शिक्षा के महत्व को समझने लगेंगे, उसी दिन से उनके जीवन में बदलाव आने लगेगा।

सातवीं-आठवीं तक पढ़कर क्यों छोड़ दे रहीं बेटियां?

ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाली महादलित बस्तियों की महिलाओं से बातचीत के दौरान कई चौंकानेवाली बातों की जानकारी हुई। मुजफ्फरपुर जिले के बंदरा प्रखंड का एक गांव है गोविंदपुर छपरा। इस गांव के मांझी टोले की रीना देवी, ममता देवी एवं खुशबू देवी ने बताया कि स्कूल जाते समय या आसपास के माहौल में लड़कियों के साथ छेड़खानी करते एवं अन्य तरह के खतरे आए दिन देखने को मिलते रहते हैं। जिस डर से माता-पिता अपनी बेटियों को आगे की पढ़ाई कराने से कतराते रहते हैं।

प्रेरणा और जागरूकता की कमी :

गांव में प्रेरणादायक माहौल का अभाव रहता है। विशेषतया ग्रामीण क्षेत्रों में रहनेवाली महिलाओं में सफल, शिक्षित महिलाओं की कमी के कारण भी लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित नहीं हो पाती हैं। वह समझती है कि पढ़ाई से उसके जीवन में कोई विशेष बदलाव नहीं आने वाला है। ग्रामीण क्षेत्रों के लोग लड़की को आजादी देना पसंद नहीं करते हैं। वे लड़कियों को गलत नजरिए से देखते हैं। बेवजह लड़की के माता-पिता पर ग्रामीण दबाव बनाते रहते हैं कि लडकी बड़ी हो गई है, अब शादी कर देनी चाहिए। 17-18 साल की होते-होते शादी का दबाव बनाया जाने लगता है।

इज्जत-प्रतिष्ठा का सवाल :

बेटी कहीं किसी से बात न कर ले, कोई गलत कदम न उठा ले या फिर कोई ऐसी हरकत न कर ले, इसलिए कम उम्र में ही उसे पढ़ाई से वंचित कर शादी की तैयारी, जैसे- घर का कार्यभार संभालने की जिम्मेवारी के बारे में सिखलाया जाने लगता है, ताकि अभिभावक की प्रतिष्ठा बनी रहे। उसकी पगड़ी का मान न घटे। यही सोच बालिका शिक्षा की राह में रोड़े बन जाते हैं।

बेटियों को बोझ समझना :

हमारे समाज में बेटियों की पढ़ाई से संबंधित समस्याओं में एक समस्या यह भी है कि बेटी एक बोझ-सी होती है। इसे जितनी जल्दी हो सके एक अच्छा, जिम्मेदार व पैसे वाला लड़का ढूंढ़कर उसकी शादी कर दी जाए और इस तरह अपने सिर का बोझ उतार दिया जाए। क्योंकि बेटी पराए घर का धन मानी जाती है। इसे ज्यादा पढ़ाने से बेहतर होगा कि पढ़ाई का खर्च बचाकर शादी में लगा दिया जाए। इसी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियां सातवीं-आठवीं तक पढ़ाई करके छोड़ देती है।

परंपरागत व दकियानुसी विचार :

खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में यह देखने को मिलता है कि हमें बेटियों को उतना ही पढ़ाना चाहिए जितना कि अपने घर का हिसाब-किताब कर ले। बेटी को अधिक पढ़ा देंगे, तो लड़का उतना पढ़ा-लिखा खोजने में परेशानी होगी और दहेज भी अधिक देना होगा। इससे अच्छा है कि बेटी को कम पढ़ाकर सिर का बोझ जल्दी उतार दिया जाए। बालिका शिक्षा में आड़े आने वाली एक बात यह भी है कि जिस बाप-मां की अधिक बेटियां होती हैं, तो उनके पालन-पोषण में अधिक खर्च उठाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में एक गरीब परिवार का आदमी बेटियों को बमुश्किल सातवीं-आठवीं तक पढ़ाकर सबकी जल्दी-जल्दी शादी कर देता है। वे सोचते हैं कि यदि एक बेटी को अधिक पढ़ाएंगे, तो सभी बेटियों को पढ़ाना होगा। उतने पैसे की कमाई है नहीं कि सभी को काॅलेज तक भेज पाएं। यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र के आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों में अशिक्षा का अंधकार फैला रहता है।

हमारे समाज में आज भी लोगों की यही मानसिकता बनी हुई है कि लड़की अगर आठवीं तक पढ़ी है तो उसके लिए लड़का कम-से-कम दसवीं पास तो होना ही चाहिए। लड़की लड़के के मुकाबले कम पढ़ी-लिखी होनी चाहिए। क्योंकि लड़की ज्यादा पढ़ी-लिखी होकर भी उसे घर का कामकाज ही करना है और बच्चे एवं घर ही संभालना है। औरतों/लड़कियों की नौकरी करने से घर की इज्जत चली जाएगी। समाज में उसकी बदनामी होगी, यह सोच आज भी गांवों में बरकरार है। नौकरी करना, व्यवसाय करना, पैसे कमाना, ये सब मर्दों का काम है। और बच्चे पैदा करना, घर संभालना आदि औरतों का काम है। लिंग के आधार पर शिक्षा एवं कामकाज को बांटना, यही तो पुरुष-प्रधान समाज की सोच है। यही सोच बालिका शिक्षा के रास्ते की बड़ी रुकावट है। इस सोच को बदलना जरूरी है।

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